अपना चेहरा किसको दूँ
ग़ज़ल*विज्ञान व्रत

कुछ दिन बे-पहचान रहूँ
अपना चेहरा किसको दूँ
और उन्हें अब क्या लिक्खूँ
ख़त में ख़ुद को ही रख दूँ
ख़ुद को कुछ ऐसे छेड़ूँ
जैसे कोई नग़मा हूँ
इक अंकुर – सा रोज़ उगूँ
और फ़सल – सा रोज़ कटूँ
अब उनकी तस्वीर बनूँ
ख़ुद को फिर तहरीर करूँ
पहले ख़ुद से तो निबटूँ
फिर इस दुनिया को देखूँ
शाम को जितना घर लौटूँ
ये समझो बस उतना हूँ
*विज्ञान व्रत,नोएडा