जख्म ही जख्म
*आशुतोष*

दो जख्म हजार
मगर तौबा न करना
मरते है हजार
मगर तुम रूसवा न करना।
है बहुत सहजादे यहाँ
दिल हमारा एकजादे हुआ
इस बात को समझकर तुम
इरादे इख्तियार रखना।
बात निकली है पुश्तों की
तो पुश्तो पे ऐतवार रखना
एक तो भूतकाल हुए
दूजे वर्तमान पे ऐतवार रखना।
मिटा दी जिसने हस्ती
उन हस्तियों का सौदा कैसा
लौटेंगे अपने दिन भी
इन अंधेरो से समझौता कैसा।
आपकी बहुत एहसान है
पर वो सिर्फ आपकी स्वार्थ
तीन पीढी बीत चुके
आये न कुछ भी हाथ।
तन्हाईयों की लत पडी
अब शोरगूल पसंद नहीं
तौबा कर ली जब
मुड कर देख लूँ ये पसंद नही।
गुणवान को पहचान पाओ
ये सबमें हुनर ही कहाँ
मौका परस्त लोगो का
काम के अलावा मतलब कहाँ।
*आशुतोष
पटना बिहार
CATEGORIES कविता