प्यारा अप्पू

कहानी *सविता दास सवि
सुबह-सुबह किसी के दरवाज़ा खटखटाने से मेरी नींद खुल गई । चारो तरफ जंगल, यहाँ कौन मुझसे मिलने आया होगा । आज तो हरि काका भी छुट्टी पर है, चलो देखते हैं, सोचकर आँखे मलता हुआ मैं दरवाजें की ओर बढ़ा । खिड़की से बाहर देखा तो चौंक गया, अरे ये तो छोटा सा हाथी का बच्चा है ।
फोरेस्ट ऑफिसर के तौर पर यहाँ मुझे अभी पंद्रह दिन हुए थे । जंगल में रहना मेरे काम का हिस्सा ही था । परिवार दूर था, तो यहां पेड़-पौधो को ही संगी-साथी बना लिया था । जंगल का मुआयना हर रोज़ का काम था । अस्सी प्रतिशत पेड़-पौधे लगभग काटे जा चुके थे । लोग बिना सोचे-समझे अपना यहाँ गाँव बसा रहे थे ।
खैर, जो भी हो दरवाज़ा खोलकर देखा अप्पु (हाथी का बच्चा) अपनी सूंड से मेरी दरवाज़े को हिलाने लगा, मैने प्यार से उसका माथा सहलाया, पता नही भटकते हुए ये शायद यह मेरे क्वार्टर आ पहुँचा होगा । छोटे से मेहमान का स्वागत सत्कार कैसे किया जाए । रसोई में टटोला तो तीन बासी रोटियाँ मिली । बड़े चाव से रोटियाँ खाई अप्पु ने और तभी उसकी माँ उसे दुंढ़ती हुई आई और उसे साथ लेकर चल पड़ी ।
इधर जंगल में लोगो का गाँव बसने लगा था, फलत: जानवरों को खाने-पीने से लेकर रहने तक की कठिनाई होने लगी थी । गाँव एकबार बसने लगे तो उसे हटाना प्रशासन के हाथ में भी नहीं रहता ।
अब हर रोज की ड्यूटी के अनुसार जंगल का मुआयना करने मैं निकल पड़ा । पेड़-पौधे कम होने लगे थे, झुग्गी-झोपड़ी ज्यादा दिखने लगे और हर घर के सीमा के चारो और पतले से तार बांधे गए थे जिनमें प्लास्तिक पेपर टांगे गए थे । कुछ अजीब सा लगा मुझे । जगह तो काफी खूबसूरत भी, पहाड़ तो मानो चारो और प्रहरी के जैसे खड़े थे और उनपर बिछी हरियाली उनकी सुंदरता और भी बढ़ा देती ।
फल तथा औषधियों से सजे थे पहाड़ । ऊँचाई पर थे वरना इन्हे भी तबाह कर देते गाँव के लोग । मेरी जीप आगे बढ़ रही थी धीरे-धीरे, तभी सामने से एक युवक आता दिखाई दिया । अरे भाई ये सभी के घरों के सीमाओं पर तार क्यों बांधे गए हैं ? और ये प्लास्टिक के कागज भी लगाए गए हैं, ऐसे क्यों ? उत्सुकता वश मैने पुछा । तभी उसने कहा, आपको तो पता होगा साहब यहाँ एक घना जंगल हुआ करता था और यहाँ असंख्य पशु-पक्षी रहा करते और खासतौर पर हाथिऔ का जत्था यहाँ से गुज़रा करता । पर अब जबकी यहाँ गाँव बसना शुरु हो गया तो आधे से ज्यादा जंगल कट चुका और सभी ने अपनी चारो सीमा में तार बांध कर रख दिया । अरे ये कोई सामान्य तार नही है, इसमे करंट है, ताकि कोई जंगली जानवर यहाँ से गुज़रे तो उसे बिजली के झटके लगे । कहते हुए उसकी आँखे बड़ी-बड़ी हो गई । इतना कहकर वो वहाँ से चल दिया । मैं कुछ देर चुपचाप सोचता ही रहा । आज जहाँ हम पेड़-बचाओ के नारे लगा रहे हैं वहाँ जंगल के जंगल काटे जा रहे है और दूसरे जीव-जंतुओं के रहने का आश्रय खत्म होता जा रहा था । उदास मन से मैं अपने क्वार्टर पहुँचा । खाना आज खुद ही बनाना था । क्युँकी हरि काका यानी मेरे सहायक छुट्टी पर थे ।
दोपहर का भोजन करके मैं पास वाले बज़ार की और निकल गया । कुछ खाने-पीने का सामान, फल वगैरह लेकर जंगल के रास्ते मुआयना करते हुए अपने घर की और जाने लगा । तभी सामने से अप्पु अपनी माँ के साथ टहलते हुए मेरे सामने आया । एक ही मुलाकात में वह मुझे जैसे जानने लगा था । अपनी छोटी सी सूँड़ से मुझे छूने कि कोशिश कर रहा था । मैने उसका माथा और सूँड़ सहलाते हुए अपनी जीप से उठाकर एक केले का गुच्छा उसे दिया । उसकी माँ के साथ उसने वह बाँटकर खाया । अपनी सूँड़ से मेरे गर्दन और सर को छुकर, मुझे दुलार दिखाने की कोशिश की । प्यारा सा अप्पु, मैनेतो बस उसे थोड़ा सा कुछ खाने को दिया था और वह इतना कृतज्ञ होकर बदले में मुझे अपनापन दे रहा था ।
शाम हो चली थी, मैं अपने क्वार्टर की ओर चल पड़ा । खाने में रोटियाँ बना ली थी, आज कुछ ज्यादा बना ली थी, प्यारे से दोस्त अप्पु के लिए । जंगल, जानवर, ईंसान इन सब के अनदेखे रिश्तों के बारे में सोचते हुए कब नींद आ गई पता ही नहीं चला ।
सुबह बारिश की आवाज़ से मेरी नींद खुल गई, उठने के बाद अपनी सुबह की चाय की प्याली लिए मैं खिड़की के पास गया, बारिश की वजह से पेड़-पौधे ओर भी ताज़े और हरे नज़र आ रहे थे । कुछ नए अकुरों का भी आगमन हो गया था, मैं सोचने लगा, क्या ये कभी वृक्ष बन पाएंगे ?
इन अलसुलझे सवालों से उबरने की कोशिश में, मै अपने रोज़ के कामों में जुट गया । मन ही मन मैं अप्पु का इंतज़ार कर रहा था । कुछ रोटियाँ ओर फल उसके और उसकी माँ के लिए बचा कर रखे थे ।
नहाकर तैयार होने लगा पर मेरे कान जैसे बज रहे थे, मानो कोई दरवाज़ा खटखटा रहा था । पर इस बार तो सही में कोई दरवाज़ा खटखटा रहा था, मुझे लगा अप्पु ही होगा । भागकर मैं दरवाज़ा खोलने गया तो देखा सामने हरी काका छाता लिए खड़़े हैं। ‘ओह, आप गए काका ?,’ मैने अपने प्रश्न के साथ अपनी उत्सुकता जो अप्पु के लिए थी, छिपा गया । ‘हाँ, बाबु, अभी लुगाई की तबीयत ठीक है, सो मैं वापस आ गया ।’ ‘बाबू मैं कमरा साफ कर लूँ, फिर खाना बना लूँगा’ । यह कहकर हरि काका अपने काम में जुट गए ।
अप्पु अभी भी नही आया, शायद बारिश की वजह से नही आया होगा । पता नही उसने कुछ खाया भी होगा या नही— मेरा मन सिर्फ अप्पु के खयालों में ही उलझा था, मानो वह जैसे मेरे परिवार का ही हिस्सा हो । सुबह नाश्ता कर अपनी जीप अप्पु के हिस्से का ‘खाना’ लेकर मैं जंगल की ओर चल पड़ा । कई चक्कर लगाने के बाद भी अप्पु नही दिखा । उसे दूंढता हुआ मैं गाँव की ओर चल पड़ा गाँव के सीमा में प्रवेश करते ही मेने देखा कुछ लोग किसी को घेरे भीड़ करके खड़े हुए थे । वही से एक आदमी गुज़र रहा था तो मेने पुछा, ‘भाई, इतनी भीड़ क्यों है वहाँ ?’ ‘अरे ! बाबू रात में एक जानवर गाँव में खाने की तलाश में घुस आया की तभी बिजली के तार से करंट खाकर वही मह गया ! ‘ओह !’ मेरे मुँह से, निकल पड़ा । अपने जीप को ऊधर ही ले गया । जीप से उतरकर, भीड़ को हटाते हुए उस जानवर के पास गया तो देखा, वह अप्पु था । उसका पूरा बदन लकड़ी जैसे सख्त हो गया था, उसकी आँखे अधखुली थी, जैसे मुझे ही देख रही थी । पास बैठी उसकी माँ चिंघाड़ रही थी ।

*सविता दास सवि
तेज़पुर ,जिला: शोणितपुर
उत्कृष्ठतम रचना। बधाई आप पूर्वोत्तर में रहकर हिंदी में अच्छा लेखन कर रही हैं।
●राजकुमार जैन राजन
आदरणीया सवि जी की कहानी वन्य जीवन का आनंद दिलाती कुछ ऐसे मोड़ पर आ कर समाप्त हूई कि पश्चात भी मन मे अप्पू की छवि बनी रही। समृद्ध भाषा मे सुंदर कथा के लिए उन्हें हार्दिक शुभकामनाएँ। अखिलेश सिंह श्रीवास्तव, सिवानी