ऐसा जीवन जिएँ कि मानवता महक उठे

लेख*राजकुमार जैन 'राजन'
चरित्र निर्माण और नैतिक उत्थान भारतीय ऋषि मुनियों द्वारा पदत्त महान जीवन लक्ष्य रहे हैं।संस्कार व्यक्ति के जीवन का एक ऐसा पक्ष है जो सबसे ज्यादा मुखर होता है। संस्कार की दृष्टि से चेहरे की चमक जो अपनी पहचान बनाती हैं उसके समक्ष दूसरी सभी बातें गौण हो जाती है। संस्कारों द्वारा ही चरित्र का विकास सम्भव होता है। जीवन निरन्तर चलने का क्रम है। सुख-दुःख, धूप-छांव, जीवन की नियमित क्रियाएँ हैं। ये क्रियाएँ ही नई ऊर्जा को परिभाषित करती है। नई प्रेरणाओं को जन्म देती है जो जीवन में नई ऊर्जा को परिभाषित करती है। ये प्रेरणाएँ ही जीवन में क्रमिक विकास को उद्घाटित करती है। वही मनुष्य जीवन मे सफल हो सकता है जिसके संस्कार ऐसे होते हैं कि वह हर परिस्थितियों का सामना कर सकता है। अपने अस्तित्व के प्रति सम्पूर्ण जागरूक हुए बिना कोई भी व्यक्ति चरित्रवान नहीं बन सकता।
यदि आप किसी को सद्व्यवहार से अपना बना सकते हैं कि यह आपका ऐसा संस्कार होगा कि समाज में जुड़े लोग आपके लिए हर सहयोग करने के लिए तैयार हो जाएंगे और उन लोगों के दिलों में आपके लिए विशेष स्थान आरक्षित हो जाएगा। अगर हम अपने माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी की दिनचर्या को देखें तो पाएंगे कि उनकी दिनचर्या आपसे कई मायनों में भिन्न है। उनका जीवन और दिनचर्या हमारे ऋषि मुनियों के बनाये नियमों के मुताबिक है। उनका अपनी दिनचर्या पर नियंत्रण है। चरित्र निर्माण को इन लोगों ने न केवल अपने जीवन में उतारा बल्कि अपने उत्तराधिकारियों को भी संस्कारों का प्रतिबोध दिया। जीवन मे सुख व शांति की प्राप्ति होती है। उसके कारण समाज व देश का बहुत भला होता है। चरित्रवान व्यक्ति आत्मा के विपरीत कोई काम नहीं करते। इस बेशुमार दौलत के सामने दुनिया की सारी दौलत कम है। चरित्र गुणों से युक्त व्यक्ति सचमुच अपने हर सपने को हकीकत में बदल सकते हैं। व्यक्ति के जीवन में संस्कारों की चमक न हो तो वह जीवन निष्प्रभ और निर्जीव -सा लगता है। कहा भी गया है, “वेल्थ लोस्ट : नथिंग लोस्ट, हैल्थ लोस्ट : समथिंग इज लोस्ट, करेक्टर लोस्ट : एवरीथिंग इज लोस्ट।”
चिंतनीय है कि वर्तमान युग का प्रवाह विपरीत दिशा में प्रवाहित है। सोने चांदी की चमक में मूल्य दांव पर लग रहे हैं। रिश्वत, भ्रष्टाचार , अपहरण जैसे कुत्सित भावों तले मानवीयता कुचली जा रही है। चरित्र और संस्कारों का क्षरण हो रहा है। यही कारण है कि मौलिकता बिखरती जा रही है। दूसरों के अधिकारों का हनन करना आम बात हो गई है। असीमित इच्छाएं दुःख पैदा कर रही हैं। निराशा , असंतुष्टि और अप्रसन्नता जैसे घेरे में बन्द इंसानों के लिए जीना हराम हो गया है। अर्थ प्रधान जीवन-शैली की प्रमुखता ने मानव मात्र को गुमराह किया हुआ है। ऐसे विषम और भयावह युग में चरित्र और संस्कार की बात करना आपको अटपटा लग सकता है, लेकिन यह सत्य है कि हर समस्या का समाधान भी है।
परन्तु आज अगर भातीय मानस का विश्लेषण किया जाए तो यह तथ्य किसी से छुपा नहीं रहेगा कि उसके दृष्टिकोण में परिवर्तन आ रहा है। अतीत के उन संयम एवमं त्यागमय आदर्शों से उसकी श्रद्धा डगमगा रही है जिसके परिणाम स्वरूप सच्चाई, सच्चरित्र, प्रामाणिकता, नैतिकता, ईमानदारी जैसे सद्गुण/ संस्कार जीवन से लुप्त होते जा रहे हैं । वर्तमान टी. वी., इंटरनेट की आभासी दुनिया से जो संस्कार प्राप्त हो रहे हैं वो न जाने हमें कहाँ ले जाएंगे? आज हमारे संस्कार भी प्रोफेशनल हो गए हैं। हम सब-कुछ लाभ-हानि के दृष्टिकोण से सोचने लगे हैं इसलिए असमानता, असंतुलन, हिंसा, भ्रष्टाचार, पनप गया है। सही मायने में हमारी असीमित इच्छाओं से मन में तूफान मचा हुआ है। एक इच्छा पूरी होने से पहले ही दूसरी इच्छा अपना मुँह खोल रही है।इच्छाओं की पूर्ति अनैतिक तरीकों से करने के अर्थ है -दुःखों को आमंत्रित करना।
संस्कृति के बीज की संरक्षक मातृ शक्ति है क्योंकि वह क्षेम को वहन करने वाली है जो अच्छे संस्कार संतान को दिए जाते हैं उनका वह संरक्षण, संवर्धन भी करती है पर आज यह मातृत्व शक्ति भी आधुनिकता की चकाचौंध में अंधी हो रही है। अब फिर से मातृशक्ति के साथ ही सबमें ऐसा कोई अंतर्बोध जाग्रत हो कि सबमें नैतिक चरित्र की पुनर्स्थापना हो। बच्चों में नैतिकता के संस्कारों, मानवता के संस्कारों के साथ- साथ धार्मिक संस्कारों का बीजारोपण भी करें। सुंदर मकान का निर्माण पत्थरों से होता है, पर सुंदर इंसान का निर्माण श्रेष्ठ संस्कारों से होता है। अच्छे संस्कार किसी बड़े माल में नहीं,परिवार के अच्छे माहौल में मिलते हैं। देश में नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए हर व्यक्ति का जागरूक रहना जरूरी है।
बेहतर समाज व देश का निर्माण तभी होगा जब हम शिक्षा के साथ साथ संस्कार निर्माण पर जोर देंगे। वर्तमान समय में पुरानी पीढ़ी के पास अच्छे संस्कार हैं और नई पीढ़ी के पास अच्छी शिक्षा। अगर दोनों आपस में तालमेल बिठाकर चलें तो नए युग का निर्माण हो सकता है। चरित्र निर्माण की दृष्टि से सर्वाधिक सजग आने वाली पीढ़ी को बनाना होगा। जब यह भाव जग जाएगा तब व्यक्ति स्वयं अपने संयम, अपने अंकुश में रहेगा। सच में हम ऐसा जीवन जी लें कि मानवता मुस्कुरा उठे। मानवता महक उठे।
*राजकुमार जैन राजन
आकोला(चित्तौडगढ़) राजस्थान
मोबाइल न.9828219919
ईमेल -rajkumarjainrajan@gmail.com
आपने ,आज के समय की समस्या प्रकाश डाला है और उसका समाधान भी प्रस्तुत किया है बहुत-बहुत धन्यवाद
हिन्दी भाषा में उर्दू की घुसपैठ अब सामान्य बात हो गई है ,हिन्दी को भारत की सम्माननीय भाषा बनाना है ,तो उसे संस्कृत निष्ठ बनाना होगा ,नहीं तो फिर बोये पेड़ बाबुल का तो आम कहाँ से होये ,उक्ति चरितार्थ होंगी। उपरोक्त लेख में ,–“उसकी तहरीर,तक़दीर और तदबीर हमारे जेहन में घूमती रही।” एक लाइन में चार उर्दू के शब्द आपके रुझान को प्रदर्शित कर रहे हैं
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