धरती माँ का कर्ज सभी पर
कविता*रामगोपाल राही
कितने हैं उपकार धरा के,गिनती करना मुश्किल है|
धरती माँ का कर्ज सभी पर,उसे चुकाना मुश्किल है||
बिगड़ी-बिगड़ी सेहत लगती,सचमुच समझो धरती की|
खनन हनन से क्षति अपरिमित,हुई जा रही धरती की||
कई खनिजों में-भू गर्भ अब रीता रीता लगता है|
खनिजों का आकूत खजाना,भू में बीता लगता है||
हाल हुआ बेहाल कहीं तो,बंजर हो गयी धरती माँ|
बेहिसाब दोहन से नित्य,हुई खोखली धरती माँ||
रत्न, खनिज, धातुएँ अमूल्य,धरती माता देती है|
अन धन देती पाले पोसे,सबको जीवन देती है||
वन नदियाँ पर्वत व सागर,अंग हैं समझो धरती के|
इन को हो नुकसान तो मानो,क्षति हो रही धरती की||
हम से पहले जीव जंतु सब,आए पेड़ भी धरती पर|
इनकी रक्षा हो नहीं पा रही,उजड़ रहे हैं धरती पर||
पेड़ प्रजाति वन वनस्पति अभयारण्य धरती पर|
यह धरती के आभूषण हैं,रहे हमेशा धरती पर||
बिना पेड़ पौधों के समझो,बढ़े रुग्णता धरती की|
हरी भरी धरती हो सारी,सेहत सुधरे धरती की||
खनन हनन व पालीथिन से,मुक्त बनाएँ धरती को|
खाद रसायन विष -बचाएँ,बंजर होती धरती को||
क्या देते हम धरती माँ को,कब -सुरक्षा करते हैं|
एक पेड़ भी लगा न सकते,फर्क अदा नहीं करते हैं||
धरती हमें बचाती भाई,क्यों न इसे बचाएँ हम|
क्षति अपरिमित हो रही रोकें,अपना फर्क निभाएँ हम ||
*रामगोपाल राही,लाखेरी