लाॅक डाउन
लघुकथा*पुष्पा सिंघी
कोरोना वायरस के कहर से विश्व का कोई भी देश अछूता न रहा । प्रधानमंत्री ने देश को इस खतरे से सावधान कर सभी देशवासियों को घर में रहने की अपील करते हुए कहा कि अपने दरवाजे को ही लक्ष्मणरेखा मानें ताकि इसे फैलने से रोका जा सके । इस महामारी का कोई इलाज ही कहाँ है ? बचाव ही एकमात्र उपाय है , तभी कोरोना वायरस से यह जंग हम जीत पायेंगे । पूरे देश में लाॅक डाउन घोषित कर दिया गया । शहर-गाँव की सड़कें सूनी दिखायी देने लगी । लोग घरों में बंद हो कर बचाव के निर्देशों का पालन करने लगे । सदियों में ऐसे अवसर बहुत कम क्या , आए ही नहीं थे । दिन भर काम करने वाले नर-नारी, स्कूल जाने वाले बच्चे , किटी पार्टी और ब्यूटी पार्लर्ज़ जाने वाली महिलाएँ , मंदिर जाने वाली माता-दादियाँ , कितने प्रकार और परिचय गिनाएँ… सब घरों की चार दीवारियों में बंद ।दहलीज़ से बाहर कहीं पाँव भी धरे तो किसी आवश्यक काम के लिए जैसे दवा, दूध, सब्ज़ी भर लाना । सरकार द्वारा गाड़ियों पर बजते माइकों पर हिदायतें… पुलिस पेट्रोलिंग… रोक-टोक…. यही बात टी.वी. पर… यही बात फ़ोन और व्हाट्स एप पर… यही बात सभी मुखों पर । सिर्फ़ भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में यही हाल । जीवन जैसे थम सा गया हो और मानव मानो क़ैद में बुलबुल… छटपटाहट , तड़फ , कोफ़्त , उदासी , अवसाद…. ऐसा तो कभी नहीं सोचा था ।
अजब खौफ का माहौल…. अंतस में उबरने की आस….. एक अद्भुत-सा संगम । सत्यदेव तिवाड़ी अपने घर की बाॅलकानी में खड़े न जाने कितने दृश्यों से रूबरू हुए । सड़कों में पसरे सन्नाटे को भंग करते नियम-उल्लंघन कर गली में जहाँ-तहाँ घूमते हुए कथित नौजवानों को देखकर अनगिनत विचारों की लहरों ने उथल-पुथल मचा रखी थी । ओह , अभी तो लाॅक डाउन के तीन दिन ही बीते हैं । सच , घर में कैद होकर रहने जैसा दुष्कर कार्य क्या होगा ? मंदी की मार झेलता कपड़े का व्यापार और ऊपर से लाॅक डाउन । ऐसे हालात में स्टाॅफ की तनख्वाह , घर के खर्चे मानों यक्ष प्रश्न बन कर खड़े हो गये । यकायक उनकी तंद्रा अपने प्रिय हरिमन तोते की आवाज सुनकर टूटी । तभी कोने में टंगे पिंजरे की ओर निगाहें उठी , रंग-बिरंगी चिडियाएँ कलरव कर रही थीं । पक्षी पालने के शौकीन तिवाड़ी जी न जाने क्यूँ उन सभी को बहुत देर तक अपलक देखते रहे । उन्हें लग रहा था वे पंछी कोई और नहीं , वे और उनके ही दूसरे साथी हों । पहली दफ़ा तिवाड़ी जी को कफ़स और आशियाने का फ़र्क़ समझ में आ रहा था । गला रुंध सा रहा था…. एक अजीब-सी घुटन तिवाड़ी जी को महसूस हो रही थी…. आँखें नम हो चली थी ।
अचानक तिवाड़ी जी पिंजरे के पास पहुँचे और उन्होंने बरसों से बन्द दरवाजा खोल दिया । एक-एक करके पंछी बाहर निकलते गये और मुक्त आसमान में उड़ान भरने लगे । उनको दूर तक देखते हुए तिवाड़ी जी के मुख मंडल पर संतुष्टि के भाव तैर गये । सत्यदेव तिवाड़ी को लगा…. वे स्वयं पंछी हैं और मुक्त आकाश में विचरण कर रहे हैं चिंता रहित…. असीम उत्साह के साथ ।
*पुष्पा सिंघी , कटक