संसार वृक्ष है, पाप-पुण्य बीज और दुःख-सुख फल

लेख*डॉ विवेक चौरसिया
संसार में हर नियम का अपवाद सुलभ है। सबसे बड़ा नियम है कि जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु अटल है मगर सनातन धर्म परम्परा में इस तक के अपवाद स्वरूप अष्ट चिरंजीवी उपस्थित हैं। सावित्री अपने पति सत्यवान को यमराज के पाश से छुड़ा लाई थी और श्रीकृष्ण ने बहन सुभद्रा की प्रार्थना पर उत्तरा की कोख से मृत जन्मे अभिमन्यु पुत्र परीक्षित को पुनर्जीवित कर दिया था। दसियों उदाहरण हैं जिनका सार केवल इतना है कि जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु: के मूल और मौलिक नियम का भी उल्लंघन हुआ है तब शेष नियमों की तो बात ही क्या! सबके अपवाद है। मानो नियम है तो अपवाद भी हैं ही।
इन तर्कों-तथ्यों और सत्य-सन्दर्भों के बावज़ूद एक नियम ऐसा है जिसका कोई अपवाद नहीं है। वह यह कि जो हम बोते है वहीं काटते हैं। आम बोने पर आम और बबूल बोने पर बबूल। आज तक ऐसा न हुआ कि किसी ने आम बोए और बबूल पैदा हो गया और किसी ने बबूल बोए मगर आम उग आया हो। प्रकृति और परमात्मा का यह एकमात्र नियम अपवाद रहित है। जिस पर समूचा कर्मवाद टिका हुआ है। ‘करहिं जो करम पाव फल सोई, निगम नीति असि कह सब कोई’ और ‘करम प्रधान बिस्व करी राखा, जो जसु करहिं सो तसु फलु चाखा’ के श्रीरामचरितमानसीय सूत्र इसी की गवाही और दुहाई में रचे गए हैं।
ज्ञानियों-ध्यानियों ने संसार की अनेक उपमाएँ दी हैं। किसी ने सराय कहा तो किसी ने सागर। जिनके अनुभव कटु रहे उन्हें दुनिया जंगल नज़र आई और जिन्हें ज़िंदगी जंग लगी उन्हें जगत जंग का मैदान प्रतीत हुआ। जो भवसागर की थाह न पा सका उसने माया कहकर अमाप्य माना और जिसका पूरा जीवन तट पर अकर्मण्यता में रीत-बीत गया उसने संसार को असार कहा। मानो मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना!
इन नाना मुंडों की भीड़ में एक अद्भुत कर्मयोगी हैं श्रीकृष्ण, जिन्होंने संसार को सबसे निराला सम्बोधन दिया है। जो श्रीकृष्ण मानव इतिहास के सबसे बड़े यात्री और योद्धाओं के योद्धा हैं, जो कर्मयोग के अद्वितीय प्रवक्ता और सारी मायाओं से परे स्वयं परम् मायापति हैं, क्षीरसागर ही जिनका निवास है और जिनका समूचा जीवन संघर्षों की करुण कथा है, वे करुणानिधान कभी नहीं कहते कि संसार सागर है या असार है। इन ओछी या अधूरी तुलनाओं से इतर अपने सांसारिक अनुभवों पर आधारित संसार का सच्चा और सार्थक सार उन्हें एक वृक्ष के रूप में नज़र आया है। जिसे श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत में अपने अनन्य सखा उद्धव से साझा किया है।
कर्मयोग पर कृष्ण के दो प्रमुख उपदेश हैं। एक श्रीमद्भागवतगीता का जो युद्ध भूमि में अर्जुन को दिया और दूसरा भागवत का जो एकादश स्कन्ध में उद्धव ने पाया। दोनों श्रोता मित्र हैं पर दोनों की भावभूमि भिन्न हैं। अर्जुन योद्धा है पर विचलित हैं, उद्धव ज्ञानी है पर चिंतित हैं। इसलिए गीता का उपदेश कर्म का प्रेरक बन प्रकट हुआ है तो भागवत के वचन संसार का सार सुनाते श्रीमुख से झरे हैं। मानो जब कर्म करना हो तो गीता गुन लो और जब भविष्य की चिंता सताने लगे तो भागवत सुन लो।
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कथा अनुसार जब द्वापर युग में अपनी लीलाओं का संवरण कर श्रीकृष्ण के स्वधाम जाने का अवसर आया तो उद्धव उनके बगैर भविष्य की चिंता में डूब गए। श्रीकृष्ण का वियोग उनके लिए असह्य था और साथ ही भावी की चिंता भी। अब कैसे जिएंगे और आगे क्या होगा? तब कृष्ण ने कहा, ‘द्वे अस्य बीजे शतमूलस्त्रिनाल: पंचस्कन्ध: पंचरसप्रसूति:। दशैकशाखो द्विसुपर्णनीडस्त्रिवल्कलो द्विफलोSर्कं प्रविष्ट:।’ अर्थात ( सारी चिंताओं से परे एक बात समझ लो ) यह संसार एक वृक्ष है और दो बीज हैं। एक पाप और दूसरा पुण्य। असंख्य वासनाएँ इसकी जड़ें हैं और तीन गुण तने हैं। पाँच भूत इसकी प्रधान शाखाएँ हैं और शब्दादि पाँच विषय रस हैं। ग्यारह इन्द्रियाँ शाखा हैं तथा जीव और ईश्वर दो पक्षी इसमें घोंसला बनाकर निवास करते हैं। इस वृक्ष में वात, पित्त और कफ़ रूप तीन तरह की छाल हैं और इसमें दो तरह के फल लगते हैं, एक सुख और दूसरा दुःख। सूर्यमंडल तक फैले इस संसार का इतना ही सार है। जो इसके भेद को जान लेता है वह संसार चक्र में नहीं पड़ता।
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साधो! कोरोनाकाल हमारे लिए कलयुग के असल कलह लिए आया है। मानो अतीत का आनन्द आनन्दमूर्ति श्रीकृष्ण की तरह विदा ले रहा है और हम सब भविष्य को लेकर चिंतित हैं। कर्म की गति स्थिर है और चिंता के बादल मंडरा रहे हैं। तब कृष्ण का कथन समझने की आवश्यकता है कि दो ही बीज है पाप व पुण्य और दो ही फल है दुःख व सुख। हम जब जहां जिस भी अवस्था में हैं यथासम्भव जो बोएंगे वही काटेंगे। परहित पुण्य है और परपीड़ा पाप। जब सारा ‘संसार वृक्ष’ संकट में है तब जो जहाँ है वह यथाशक्ति पुण्य के बीज बो लें तो सुख के फल सुनिश्चित है और जो आपदा में कमाई के अवसर खोजकर पाप बोने पर आमादा होगा, उसके हिस्से दुःख के फल ही आना है। कृष्ण-कथन के आलोक में इतना तो स्पष्ट है कि बीज और फल के इस नियम का अपवाद कतई नहीं है।
*डॉ विवेक चौरसिया
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पौराणिक साहित्य के अध्येता है)